मष्तिष्क को शक्तिशाली बनाने का उपाय
मानव का मन महान शक्तियों का बहुत बड़ा भंडार है ( Dynamo of Creative Energy) | एक से बढकर एक शक्तिया इसमें निवास करती है | छोटे, बड़े, विद्वान और मुर्ख सभी को बीज रूप में परमात्मा ने यह शक्तिया दी है | जो मानव इनको जाग्रत करके इनका उपयोग करते है वो महामानव बनते है | अगर मूर्ख से मूर्ख व्यक्ति भी इनको जाग्रत करे तो वो भी बुद्धिमान बन जाता है | इनको जाग्रत करके बड़े चमत्कार किये जा सकते है | असंभव दिखने वाले कार्यों को भी सहजता से किया जा सकता है | मानसिक शक्तियों का प्रदर्शन परिपुष्ट मष्तिष्क द्वारा ही किया जा सकता है | उत्तम मष्तिस्क द्वारा ही मन अपने अदभुद सामर्थ्य का प्रदर्शन कर सकता है |
आप मष्तिष्क को केवल एक अतिसूक्ष्म यंत्र या डायनेमाँ समझ लीजिए | बिजली पैदा करने वाले डायनेमाँ के भाति मष्तिष्क विचार उत्पन्न करता है |हमारे मष्तिष्क के विभिन्न भागो में भिन्न भिन्न शक्तियों के सूक्ष्म केंद्र है | कुछ शक्तियों का केन्द्र मष्तिष्क के अग्र भाग में और कुछ का मध्य भाग में और कुछ का पृष्ठ भाग में है | मष्तिष्क के जिस भाग में यह शक्तियां निवास करती है उस भाग में स्थित कोषो(Cells) की संख्या के परिणाम में यह शक्तियां कम या ज्यादा होती है |
सेल्स की संख्या को बढ़ाने हेतु मष्तिष्क के उस भाग पर ध्यान करे व भावना करे की शरीर की सारी शक्ति उस भाग को उन्नत कर रही है | रक्त संचार उस भाग में ज्यादा हो रहा है ऐसी भावना करने से मष्तिष्क के उस भाग की कोशिकाए सक्रीय हो जायगी व उस भाग से सम्भदित शक्तियों का विकास होने लगेगा | मस्तिष्क के जो भाग निक्कमे छोड़ दिए जाने के कारण निष्क्रिय हो जाते है उन्हें भी इस प्रकार जाग्रत किया जा सकता है |
मष्तिष्क को शक्तिशाली बनाने के लिए तीन चीजे जरुरी हैं :
1. उत्तम व पूर्ण परिपुष्ट मष्तिष्क
आप मष्तिष्क को केवल एक अतिसूक्ष्म यंत्र या डायनेमाँ समझ लीजिए | बिजली पैदा करने वाले डायनेमाँ के भाति मष्तिष्क विचार उत्पन्न करता है |हमारे मष्तिष्क के विभिन्न भागो में भिन्न भिन्न शक्तियों के सूक्ष्म केंद्र है | कुछ शक्तियों का केन्द्र मष्तिष्क के अग्र भाग में और कुछ का मध्य भाग में और कुछ का पृष्ठ भाग में है | मष्तिष्क के जिस भाग में यह शक्तियां निवास करती है उस भाग में स्थित कोषो(Cells) की संख्या के परिणाम में यह शक्तियां कम या ज्यादा होती है |
सेल्स की संख्या को बढ़ाने हेतु मष्तिष्क के उस भाग पर ध्यान करे व भावना करे की शरीर की सारी शक्ति उस भाग को उन्नत कर रही है | रक्त संचार उस भाग में ज्यादा हो रहा है ऐसी भावना करने से मष्तिष्क के उस भाग की कोशिकाए सक्रीय हो जायगी व उस भाग से सम्भदित शक्तियों का विकास होने लगेगा | मस्तिष्क के जो भाग निक्कमे छोड़ दिए जाने के कारण निष्क्रिय हो जाते है उन्हें भी इस प्रकार जाग्रत किया जा सकता है |
मष्तिष्क को शक्तिशाली बनाने के लिए तीन चीजे जरुरी हैं :
1. उत्तम व पूर्ण परिपुष्ट मष्तिष्क
2. मानसिक शक्तियों का यथार्थ ज्ञान
3. मानसिक शक्तियों का पोषण और संचय
1. भक्तिभाव पूजाभाव श्रृद्धा भाव शक्तियों का केन्द्र मष्तिष्क मुर्धन्य है | जिन लोगोकी मूर्धा में यह कोष कम होते है उन लोगो में गुरुजनों व् ईश्वर में विश्वास कम रहता है |
2. जो शक्तियां कपाल के निचे अर्ध भाग में निवास करती है, वे विद्या कला खोज से सम्बन्धित है जिनमे यह विकसित होती है वे लोग निरर्थक बाते नहीं करते है व्यवस्था पूर्वक कार्ये करते है | किसी कार्ये को एक बार हाथमे लेकर छोड़ते नहीं बल्कि पूरा करते है | यद्धपि उनमे तर्क वितर्क करने की क्षमता नहीं होती, किन्तु फल प्राप्त करने की सामर्थ्ये रखते है | यदि आप इन शक्तियों को बढ़ाना चाहते है तो आप कपाल के निचे अग्र भाग के कोशो की वृद्धि करे, आप अपनी चित्तवृति मस्तिष्क के मध्य बिंदु पर एकाग्र करे | निरंतर सोचने से उस भाग मे कोशो की वृद्धि होगी और वो भाग पुष्ट होने से इन शक्तियों का विकास होगा |
3. कपाल के ऊपरी आधे भाग में बुद्धि की शक्तिया अपना कार्य करती है | इस भाग का विकास करने के लिए मस्तिष्क के मध्य बिंदु पर एकाग्र कीजिए | निरंतर सोचने से उस भाग में रुधिर की गति बढ़ेगी व एकाग्रता से वह भाग पुष्ट होने लगेगा कपाल के ऊपरी आधे भाग में बुद्धि की अपनी शक्तियां काम करती है | इस भाग का विकास करने के लिए मस्तिष्क के मध्य बिंदु से कपाल के ऊपर के अर्द्ध भाग तक रहने वाले सूक्ष्म द्रव्यों पर एकाग्रता करनी चाहिए | इस भाग के कोशो की वृद्धि से बुद्धि की शक्ति बढती है और विषयो को समझने की शक्ति में वृद्धि होती है | नित्य अभ्यास से उसकी शक्ति इतनी बढ़ जाती है की व्यक्ति जिस विषय पर सोचता है उस विषय पर आर से पार सोच सकता है |
4.. कान के छिद्र के आगे से सिर की चोटी तक एक खड़ी सीधी रेखा खीचिये जहा पर इसका अंत होगा उसके ठीक पीछे के भाग में श्रद्धा, दृढ़ता ,आत्मबल और विश्वाश आदि दिव्य शक्तियां निवास करती है | इन पर एकाग्रता करने से यदि कोष कम होंगे तो अधिक हो जायेंगे |दुर्बल होंगे तो सबल हो जायेंगे | और बलवान होंगे तो और बलवान हो जाएंगे |
5. मस्तिस्क के निचे, पीछे के भाग में प्रयास करने से सामर्थ्य शक्ति बढती है | जिस व्यक्ति में यह शक्ति विकसित अवस्था में होती है वो किसी काम को करने से पीछे नहीं हटता वो किसी भी काम को कठिन समझ कर यो ही नहीं छोड़ता क्योंकि उसे लगातार मस्तिष्क के उस भाग से सहारा मिलता है |
6. कपाल के ऊपर के भाग के भाग में जहा अंदर से बलों की जड़े शुरू होती है यह ज्ञान है की कब किस मौके पर क्या करना चाहिए ! इस निरीक्षण शक्ति को जाग्रत करने के लिए पूर्व कथनानुसार एकाग्रता करके वह के कोशो को परिपूर्ण और पुस्त करना चाहिए कठिन से कठिन गुत्थी भी इस क्रिया शक्ति से आसानी से सुलझाई जा सकती है
7. मष्तिस्क की बीच की सतह से नाडीयो के 12 जोड़े निकलते है प्रत्येक जोड़ी शरीर को कुछ न कुछ ज्ञान देता है, ये नाडीया गर्दन को विशेष सन्देश भेजती है जिससे हमें कुछ न कुछ नवीन बात मालूम होती है इच्छा शक्ति का यथार्थ स्थान कहा है इसका उत्तर ओ ह्ष्णुहारा नमक लेखिका ने अपनी पुस्तक (concentration and the acquirement of personal magnetism ) में इस प्रकार दिया है :–
मेरी सम्मति में इच्छा अथवा संकल्प शक्ति का स्थित स्थान नाडीयो के उस तेजस्क ओज के भीतर निश्चित किया जासकता है जो मष्तिष्क को चारो और से घेरे हुए है अत: संकल्प शक्ति के विकाश के लिए यहाँ के कोसो की वृद्धि कीजिये |
मष्तिष्क के विभिन्न कोशो पर एकाग्रता करने परसे हमारे रुधिर की गति उस और होने लगती है और उनकी संख्या में वृद्धि और विकाश होता है |कोई भी कोष हो बढ़ाने जरुरी है यदि ये सब बढे तो उत्तम है अत: किसी विशेष भाग के कोष बढावे ऐसा न सोचकर इस भावना पर मन एकाग्र करे की हमारे मष्तिष्क के सब कोष निरंतर बढ़ रहे है हमारी निरीक्षण शक्ति, तुलना शक्ती, न्याय शक्ती,विवेक शक्ति, संकल्प शक्ती सभी को बढा रहे है | यह भाव मात्र उपरी दिखावा मात्र नहीं होकर पूर्ण अनुभूति युक्त होना चाहिए उस समय अपनी कल्पना द्वारा वैसा ही अनुभव करना चाहिए | साधको को प्रारंभ में आत्म स्वरुप की भावना करनी कभी नहीं भूलनी चाहिए |
कोशो की वृद्धि की क्रिया जमींन जोतकर करने के समान है| जिस प्रकार उत्तम रीति से जोते हुए खेत में बीज अच्छे उगते है उसी प्रकार के कोष वाले मष्तिष्क में मानसिक शक्तिया उत्तम रीति से विकसित होती है इसलिए जिस प्रकार की शक्ति को हम विकसित करना चाहते है उसका यथार्थ रूप हमारे लक्ष्य में रहना अनिवार्य है ध्याता में ध्यान करने की वस्तु के स्वरुप की यथार्थ कल्पना अत्यंत आवश्यक है योग शास्त्र का यह अखंडनीय सिद्धांत है ध्यान करने वाला जिसका ध्यान करता है उसी के सामान हो जाता है | अत: मानसिक शक्तियों का विकाश करने वाले जिस शक्ति का विकाश करना हो उसके स्वरुप को अच्छी तरह लक्ष्य में रखना चाहिए |
कल्पना कीजिये की हम अपने अंदर श्रृद्धा भक्ति भाव अंतर्ज्ञान इत्यादि आध्यात्मिक शक्तियां का विकाश करना चाहते है | इन शक्तिय्यो के जाग्रत और विकसित होने का स्थान मूर्धा और इसके नीचे का प्रदेश है | इन स्थानो मे एकाग्रता करते समय हम सच्ची भक्ति सच्ची श्रृद्धा और अंतर्ज्ञान के जिस नमूने को सामने रखेंगे वही इसमें क्रमश: प्रगट होने लगेगा | अत: जिस शक्ति के विकाश का हमने निश्चय किया है , उसके ऊँचे से ऊँचे स्वरुप की, जहा तक हमारी बुद्धि पहुच सके वहीतक कल्पना करनी चाहिए और उस कल्पना में व्रती को आरूढ़ करके पूर्वोक्त क्रिया श्रृद्धा पूर्वक करनी चाहिए| इससे मष्तिष्क के कोष बढ़ेंगे शुद्ध होंगे और वह काल्पनिक शक्ति धीरे धीरे बढ़ने लगेगी |
तीसरी बात है सामर्थ्य की | मन जिस सामर्थ्य को परिपुष्ट होता है उस सामर्थ्य की वृद्धि करने की भी आवश्यकता है | प्रत्येक मनुष्ये में यह सामर्थ्य एक बड़े परिणाम में वस्तुत रहता है पर अधिकांश व्यक्ति इसका अधिकतर भाग निक्कमी क्रियाओं में यो ही नष्ट कर दिया करते है | बैठे बैठे पांव हिलाना , आँख नाक या गुप्तांग टटोलते रहना , सार रहित बाते सोचना, या यो ही बे मतलब की बाते करते रहना या सुपारी चबाते रहना आदि शरीर की निक्कमी क्रियाँए है | इनसे मन की सामर्थ्य शक्ति का ह्रास होता है क्रोध, चिंता, भय आदि विविध विकारों से तो सामर्थ्ये का बड़ा नाश होता है| जो दिन भर की आय होती है नाराजगी में बह जाती है| संचित सामर्थ्ये का भी ह्र्राश होता है | अत: मानसिक शक्तियों के इछुक को सब प्रकार के खस्यो ख्सयो से बचने की आवश्यकता है| मन पूरी शांत स्थिति में रहना अनिवार्य है| वाणी और शारीर के सब व्यर्थ प्रपंच छोड़कर मन को शांत स्थिति रखने का प्रयाश करना चाहिए इससे हमारा बल संचय होता है और हमें एक अद्भुत सामर्थ्य का अनुभव होता है | जिस संस्कारी व्यक्ति को इस बल का अनुभव हो उसे चाहिए की अपनी योग्य उचित वातावरण खोज ले और निरंतर मानशिक शक्तियों को पूर्वोक्त प्रकार से संचित करता रहे |
मानशिक शक्तियों की अभिवर्धि के लिए अनुकूल संगती और परिस्थितियों की परम आवश्यकता है | अपने उद्देश्य के अनुकूल उचित वातावरण उपस्थित करो | जिस वातावरण में मनुष्य रहता है वे ही मानसिक शक्तियां क्रमश: उत्पन्न और बढती हुई दिखाई देती है | जिस व्यक्ति के परिवार मे, मित्रो मे, मिलने झुलने वालो में कभी अधिक होते है , वे प्राय: कभी ही हो जाया करता है | सेनिको व सिपाहियों के कुल में रहने वाला व्यक्ति प्राय: निडर हो जाया करता है| तुम जिस प्रकार की मानसिक शक्तियों का उद्भव चाहते हो वैसे ही व्यक्तियों में रहो, वैसी ही पुस्तकों का अध्यन करो, वैसे ही मनुष्यों के चित्र देखो और निरंतर वैसे ही चिंतन में मग्न रहो अपने अभीष्ट की भावना पर मन को एकाग्र कर गंभीरता पूर्वक स्थिर करो | उपयुक्त वातावरण में रहने से मानसिक व्ययामसे भिन्न-भिन्न क्रियाओ के अभ्यास से, मन की शक्ति तीव्र हो जाती है |
3. मानसिक शक्तियों का पोषण और संचय
1. भक्तिभाव पूजाभाव श्रृद्धा भाव शक्तियों का केन्द्र मष्तिष्क मुर्धन्य है | जिन लोगोकी मूर्धा में यह कोष कम होते है उन लोगो में गुरुजनों व् ईश्वर में विश्वास कम रहता है |
2. जो शक्तियां कपाल के निचे अर्ध भाग में निवास करती है, वे विद्या कला खोज से सम्बन्धित है जिनमे यह विकसित होती है वे लोग निरर्थक बाते नहीं करते है व्यवस्था पूर्वक कार्ये करते है | किसी कार्ये को एक बार हाथमे लेकर छोड़ते नहीं बल्कि पूरा करते है | यद्धपि उनमे तर्क वितर्क करने की क्षमता नहीं होती, किन्तु फल प्राप्त करने की सामर्थ्ये रखते है | यदि आप इन शक्तियों को बढ़ाना चाहते है तो आप कपाल के निचे अग्र भाग के कोशो की वृद्धि करे, आप अपनी चित्तवृति मस्तिष्क के मध्य बिंदु पर एकाग्र करे | निरंतर सोचने से उस भाग मे कोशो की वृद्धि होगी और वो भाग पुष्ट होने से इन शक्तियों का विकास होगा |
3. कपाल के ऊपरी आधे भाग में बुद्धि की शक्तिया अपना कार्य करती है | इस भाग का विकास करने के लिए मस्तिष्क के मध्य बिंदु पर एकाग्र कीजिए | निरंतर सोचने से उस भाग में रुधिर की गति बढ़ेगी व एकाग्रता से वह भाग पुष्ट होने लगेगा कपाल के ऊपरी आधे भाग में बुद्धि की अपनी शक्तियां काम करती है | इस भाग का विकास करने के लिए मस्तिष्क के मध्य बिंदु से कपाल के ऊपर के अर्द्ध भाग तक रहने वाले सूक्ष्म द्रव्यों पर एकाग्रता करनी चाहिए | इस भाग के कोशो की वृद्धि से बुद्धि की शक्ति बढती है और विषयो को समझने की शक्ति में वृद्धि होती है | नित्य अभ्यास से उसकी शक्ति इतनी बढ़ जाती है की व्यक्ति जिस विषय पर सोचता है उस विषय पर आर से पार सोच सकता है |
4.. कान के छिद्र के आगे से सिर की चोटी तक एक खड़ी सीधी रेखा खीचिये जहा पर इसका अंत होगा उसके ठीक पीछे के भाग में श्रद्धा, दृढ़ता ,आत्मबल और विश्वाश आदि दिव्य शक्तियां निवास करती है | इन पर एकाग्रता करने से यदि कोष कम होंगे तो अधिक हो जायेंगे |दुर्बल होंगे तो सबल हो जायेंगे | और बलवान होंगे तो और बलवान हो जाएंगे |
5. मस्तिस्क के निचे, पीछे के भाग में प्रयास करने से सामर्थ्य शक्ति बढती है | जिस व्यक्ति में यह शक्ति विकसित अवस्था में होती है वो किसी काम को करने से पीछे नहीं हटता वो किसी भी काम को कठिन समझ कर यो ही नहीं छोड़ता क्योंकि उसे लगातार मस्तिष्क के उस भाग से सहारा मिलता है |
6. कपाल के ऊपर के भाग के भाग में जहा अंदर से बलों की जड़े शुरू होती है यह ज्ञान है की कब किस मौके पर क्या करना चाहिए ! इस निरीक्षण शक्ति को जाग्रत करने के लिए पूर्व कथनानुसार एकाग्रता करके वह के कोशो को परिपूर्ण और पुस्त करना चाहिए कठिन से कठिन गुत्थी भी इस क्रिया शक्ति से आसानी से सुलझाई जा सकती है
7. मष्तिस्क की बीच की सतह से नाडीयो के 12 जोड़े निकलते है प्रत्येक जोड़ी शरीर को कुछ न कुछ ज्ञान देता है, ये नाडीया गर्दन को विशेष सन्देश भेजती है जिससे हमें कुछ न कुछ नवीन बात मालूम होती है इच्छा शक्ति का यथार्थ स्थान कहा है इसका उत्तर ओ ह्ष्णुहारा नमक लेखिका ने अपनी पुस्तक (concentration and the acquirement of personal magnetism ) में इस प्रकार दिया है :–
मेरी सम्मति में इच्छा अथवा संकल्प शक्ति का स्थित स्थान नाडीयो के उस तेजस्क ओज के भीतर निश्चित किया जासकता है जो मष्तिष्क को चारो और से घेरे हुए है अत: संकल्प शक्ति के विकाश के लिए यहाँ के कोसो की वृद्धि कीजिये |
मष्तिष्क के विभिन्न कोशो पर एकाग्रता करने परसे हमारे रुधिर की गति उस और होने लगती है और उनकी संख्या में वृद्धि और विकाश होता है |कोई भी कोष हो बढ़ाने जरुरी है यदि ये सब बढे तो उत्तम है अत: किसी विशेष भाग के कोष बढावे ऐसा न सोचकर इस भावना पर मन एकाग्र करे की हमारे मष्तिष्क के सब कोष निरंतर बढ़ रहे है हमारी निरीक्षण शक्ति, तुलना शक्ती, न्याय शक्ती,विवेक शक्ति, संकल्प शक्ती सभी को बढा रहे है | यह भाव मात्र उपरी दिखावा मात्र नहीं होकर पूर्ण अनुभूति युक्त होना चाहिए उस समय अपनी कल्पना द्वारा वैसा ही अनुभव करना चाहिए | साधको को प्रारंभ में आत्म स्वरुप की भावना करनी कभी नहीं भूलनी चाहिए |
कोशो की वृद्धि की क्रिया जमींन जोतकर करने के समान है| जिस प्रकार उत्तम रीति से जोते हुए खेत में बीज अच्छे उगते है उसी प्रकार के कोष वाले मष्तिष्क में मानसिक शक्तिया उत्तम रीति से विकसित होती है इसलिए जिस प्रकार की शक्ति को हम विकसित करना चाहते है उसका यथार्थ रूप हमारे लक्ष्य में रहना अनिवार्य है ध्याता में ध्यान करने की वस्तु के स्वरुप की यथार्थ कल्पना अत्यंत आवश्यक है योग शास्त्र का यह अखंडनीय सिद्धांत है ध्यान करने वाला जिसका ध्यान करता है उसी के सामान हो जाता है | अत: मानसिक शक्तियों का विकाश करने वाले जिस शक्ति का विकाश करना हो उसके स्वरुप को अच्छी तरह लक्ष्य में रखना चाहिए |
कल्पना कीजिये की हम अपने अंदर श्रृद्धा भक्ति भाव अंतर्ज्ञान इत्यादि आध्यात्मिक शक्तियां का विकाश करना चाहते है | इन शक्तिय्यो के जाग्रत और विकसित होने का स्थान मूर्धा और इसके नीचे का प्रदेश है | इन स्थानो मे एकाग्रता करते समय हम सच्ची भक्ति सच्ची श्रृद्धा और अंतर्ज्ञान के जिस नमूने को सामने रखेंगे वही इसमें क्रमश: प्रगट होने लगेगा | अत: जिस शक्ति के विकाश का हमने निश्चय किया है , उसके ऊँचे से ऊँचे स्वरुप की, जहा तक हमारी बुद्धि पहुच सके वहीतक कल्पना करनी चाहिए और उस कल्पना में व्रती को आरूढ़ करके पूर्वोक्त क्रिया श्रृद्धा पूर्वक करनी चाहिए| इससे मष्तिष्क के कोष बढ़ेंगे शुद्ध होंगे और वह काल्पनिक शक्ति धीरे धीरे बढ़ने लगेगी |
तीसरी बात है सामर्थ्य की | मन जिस सामर्थ्य को परिपुष्ट होता है उस सामर्थ्य की वृद्धि करने की भी आवश्यकता है | प्रत्येक मनुष्ये में यह सामर्थ्य एक बड़े परिणाम में वस्तुत रहता है पर अधिकांश व्यक्ति इसका अधिकतर भाग निक्कमी क्रियाओं में यो ही नष्ट कर दिया करते है | बैठे बैठे पांव हिलाना , आँख नाक या गुप्तांग टटोलते रहना , सार रहित बाते सोचना, या यो ही बे मतलब की बाते करते रहना या सुपारी चबाते रहना आदि शरीर की निक्कमी क्रियाँए है | इनसे मन की सामर्थ्य शक्ति का ह्रास होता है क्रोध, चिंता, भय आदि विविध विकारों से तो सामर्थ्ये का बड़ा नाश होता है| जो दिन भर की आय होती है नाराजगी में बह जाती है| संचित सामर्थ्ये का भी ह्र्राश होता है | अत: मानसिक शक्तियों के इछुक को सब प्रकार के खस्यो ख्सयो से बचने की आवश्यकता है| मन पूरी शांत स्थिति में रहना अनिवार्य है| वाणी और शारीर के सब व्यर्थ प्रपंच छोड़कर मन को शांत स्थिति रखने का प्रयाश करना चाहिए इससे हमारा बल संचय होता है और हमें एक अद्भुत सामर्थ्य का अनुभव होता है | जिस संस्कारी व्यक्ति को इस बल का अनुभव हो उसे चाहिए की अपनी योग्य उचित वातावरण खोज ले और निरंतर मानशिक शक्तियों को पूर्वोक्त प्रकार से संचित करता रहे |
मानशिक शक्तियों की अभिवर्धि के लिए अनुकूल संगती और परिस्थितियों की परम आवश्यकता है | अपने उद्देश्य के अनुकूल उचित वातावरण उपस्थित करो | जिस वातावरण में मनुष्य रहता है वे ही मानसिक शक्तियां क्रमश: उत्पन्न और बढती हुई दिखाई देती है | जिस व्यक्ति के परिवार मे, मित्रो मे, मिलने झुलने वालो में कभी अधिक होते है , वे प्राय: कभी ही हो जाया करता है | सेनिको व सिपाहियों के कुल में रहने वाला व्यक्ति प्राय: निडर हो जाया करता है| तुम जिस प्रकार की मानसिक शक्तियों का उद्भव चाहते हो वैसे ही व्यक्तियों में रहो, वैसी ही पुस्तकों का अध्यन करो, वैसे ही मनुष्यों के चित्र देखो और निरंतर वैसे ही चिंतन में मग्न रहो अपने अभीष्ट की भावना पर मन को एकाग्र कर गंभीरता पूर्वक स्थिर करो | उपयुक्त वातावरण में रहने से मानसिक व्ययामसे भिन्न-भिन्न क्रियाओ के अभ्यास से, मन की शक्ति तीव्र हो जाती है |
No comments:
Post a Comment