सुख की अनुभूति और सुख का अनुभव
आज मैं जिस शब्द या जिस प्रसंग पर चर्चा कर रहा हूँ वह आज की परम आवश्यकता है, क्योकि आजकल के इस द्रुतगामी युग में प्रत्येक प्राणी सुख की भिन्न-भिन्न परिभाषाओं में अपना जीवन जी रहे है | और आश्चर्य की बात यह है कि किसी को भी असली सुख की अनुभूति ही नहीं होती है | क्यों ?
इस क्यों का उत्तर यह है कि किसी को यह ज्ञान नहीं है कि असली सुख क्या है, कोई पैसों को सुखा समझता है तो कोई परिवार को, और कई लोगों ने तो सुख कि परिभाषा ही बदल दी | मनुष्यों ने धन-दौलत, गाडी-बंगला, और सांसारिक भोगों को भोगना ही सुख मान लिया | परन्तु इन सब के बावजूद भी प्राणी सुखी नहीं है क्यों ?
क्योकि मनुष्य को सुख का अर्थ ही समझ में नहीं आता है |
सुख :- यथार्थ में सुख का अर्थ है शांति, और जहाँ शांति है वहाँ सुख है | शांति का वास मन कि प्रसन्नता में है और मन तभी प्रसन्न होता है जब मन शांत हो जाये अर्थात उसमे कामनाओं का त्याग हो जाये | प्रत्येक प्राणी के सुख के पीछे इन्द्रियों का अनुभव छुपा होता है अर्थात मनुष्य इन्द्रियों द्वारा सुख कि अनुभूति करता है, परन्तु असली सुख तो शांति ही है |
और भगवान श्री कृष्ण ने कहा है कि:-
अशान्तस्य कुतः सुखम्
अर्थात जहाँ अशांति है वहाँ सुख नहीं हो सकता है, आज का मनुष्य इस संसार की चमक में चकाचौंध होकर सुख की चाह मैं भौतिक संसाधनों को जुटाने में लगा रहता है और मन में परिकल्पनाओं का अम्बार लगता रहता है और अशांत रहता है और दिखावे के लिए खुश रहता है, पर वास्तव में वह खुश नहीं रहता क्योकि वह अपने मन को वश में तो कर नहीं सकता और कितना भी परिश्रम कर ले पर मन और आकांक्षाओं का कभी भी अंत नहीं होता और वह कभी भी सुखी नहीं होता है |
मनुष्य का मन और मस्तिष्क भी उसके शत्रु हो सकते है अगर इनको आपने अपने नियंत्रण में नहीं रखा है | क्योकि मनुष्य का मन प्रत्येक क्षण कुछ न कुछ कल्पना करता रहता है और मनुष्य का मस्तिषक कल्पना करता है की मैं फलां वस्तु प्राप्त कर तृप्त हो जाऊंगा तो उसके यह विचार मिथ्या है क्योकि मनुष्य कभी भी अपने मस्तिष्क और मन की कल्पनाओं की पूर्ति नहीं कर सकता है |
आपको अगर सही मायनों में सुख की खोज है तो आपको सही रास्ता खोजकर उसे अपनाकर ही सही खुशी जीवन की अनुभूति प्राप्त कर सकते है | उस सन्मार्ग का संकेत करते हुए भगवान श्री कृष्ण अर्जुन से कहते है कि:-
विहाय कामान्य: सर्वान्पुमांश्चरति नि:स्पृह: |
निर्ममो निरहंकारः स शान्तिमधिगच्छति ||
(गीता-श्लोक)
अर्थात:- यदि कोई प्राणी सुख और शांति चाहता है तो उसे अपनी इच्छाओं और कामनाओं कि पूर्ति का प्रयत्न करना चाहिए | और मन में उठने वाले विचारों और संकल्पों का वध करना होगा, अपनी इन्द्रियों पर कठोरता से संयम रखना होगा इस प्रकार करने से मनुष्य सुखी हो सकता है | तथा भगवान ने गीता में कहा है कि:-
आपुर्यमाणमचलप्रतिष्ठं
समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्धत |
तद्धत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे
स शांतिमाप्नोति न कामकामी ||
(गीता-श्लोक)
अर्थात:- वह मनुष्य जिसकी कामनाएं कभी शांत नहीं होती वह कदापि सुखी नहीं होता है अर्थात कामना करने वाला कभी सुखी नहीं हो सकता है | जो मनुष्य उत्त्पन्न होने वाली कामनाओं को शांत करना जानता है वही सुख प्राप्त कर सकता है, जैसे सैकडों नदियों के जल मिलने पर भी समुद्र क्षुब्ध नहीं होता वैसे ही कामनाओं के प्रवाह में मनुष्य को क्षुब्ध नहीं होना चाहिए, और जैसे गरम लोहे पर पानी की बूंदे लुप्त हो जाती है वैसे ही संयम से इच्छाओं और कामनाओं को वश में किया जा सकता है |
आज के इस भौतिक युग में प्रत्येक मनुष्य अपने खुशी और कामनाओं की पूर्ति के लिए दूसरों के सुखों का दमन करता है और दूसरों पर अत्याचार करके अपने सुख और आवश्यकताओं की पूर्ति करता है पर वह यह नहीं जनता की यह सुख और कामनाये तो क्षणिक है पर जब इस क्षणिक शरीर का भी त्याग होगा तब यह सुख संसाधन यही छूट जाते है और उन पापों और अत्याचारों का हिसाब होगा तब उनके पास पछताने से भी कुछ नहीं होगा | इसलिए समय रहते उस भौतिकवादी सुखो से निकलकर अपने आप को आध्यात्मिक और आध्यात्म की और बढ़ो तब आपको अहसास होगा की असली और यथार्थ सुख क्या है | और आपका मन कभी भी अशांत नहीं रहेगा और आप कभी भी दुखी नहीं रहेंगे |
(जय श्री कृष्ण)
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